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Saturday, January 31, 2015

ज़िन्दगी ज़रा रुक के

ज़िन्दगी के कितने ठौर ठिकाने होंगे .कितने मोड़ों के बाद वो रुक कर एक बार फिर से पीछे मुड कर तय किया रास्ता आँखों से नाप लेती होगी ।क्या सच में होगा ज़िन्दगी के पास जहन पड़ने  का हुनर । अपने ही रचे किरदारों को पड़ने की कला । खास तौर पर उन  किरदारों से जिनसे आप बामुश्किल मिले हो, फिर भी वो दिल में दाखिल होने का रास्ता ढूंढ ही लेते हों । उन किरदारों को अगर कागज़ पर न उतरा जाए या कही सहेज कर न रखो तो गिल्ट हावी रहता है ।  पिछले कुछ दिन ऐसे ही किरदारों के इर्द गिर्द चकरघिन्नी की तरह घुमे ।
फर्स्ट सीन
वो रहा होगा  उम्र में मुझ से महज 2 साल छोटा ,मेरी स्कूल में शायद पड़ता था। कभी मिला नहीं न कोई औपचारिक बात हुई ।बस उसका चेहरा याद है ,पता नहीं कुछ चेहरे याद रह जाते हैं ।सहर के किसी व्यस्तम तिराहे पर चाय के लिए रुकता हु । उम्मीद से ज्यादा थकान चाय की तलब पैदा करती है । हलाकि चाय कम पीता हु ,पर ईततफाकन उस रोज़  वही पर चाय पीने का मन है । टी स्टाल में अपने लिए मुफीद कोना मेरी आँखे जल्द तलाश लेती हैं । जगह के मामले में थोडा स्वार्थी हु ।क्योंकि चाय पीने का मज़ा अपनी मन पसंद जगह पर आता है । सामने नीली धारी की स्वेटर पहने एक लड़का बड़े सटीक अंदाज़ में चाय को ओटा रहा है .कमाल का संतुलन ,चाय की एक भी बूँद हवा में बनाये उसके रास्ते को नहीं छोड़ती । एक परफेक्ट रिंग मास्टर की तरह  ।,वो चाय लिए मेरे सामने खड़ा है । उसका स्कूल वाला चेहरा मेरे सामने घूम जाता है । उसने मुझे नहीं पहचना ,या शायद ऐसा मेरा सोचना है । क्योंकि मुझे देखने के बाद ,उसके चेहरे पर वो भाव मिसिंग है , जिसकी अपेक्षा में कर रहा था। उसमे ढेर सारा आत्म विश्वास है ।शर्म का कोई भाव नहीं ।तिराहे पर खडी दुकान में खड़े होने के बावजूद उसे अपने लक्ष्य और रास्तों का बखूभी पता है।
सीन 2
एक समय था मुझे डाकियों से दोस्ती करने का मन होता था ।एक नहीं दो नहीं  ढेर सारे डाकियों से ,लगता था जितने डाकिये दोस्त होंगे उतने खतों के गट्ठे डाल जाया करेगा घर के भीतर । एक समय था जब ख़त पड़ना मेरा सबसे पसंदीता शगल था। समय के साथ ख़त और डाकिये  ने अपने किरदार बदल लिए । अब नानी ,मामा ,चाचा और नजाने कितने रिस्तेदारों से ख़त  से मुलाकात नहीं होती ....बस फ़ोन पर होती है ।
बहुत दिनों बाद फिर से ख़त लिखने की सोची ,सोचा पुराने शगल में थोड़े प्राण फुके जाएँ, तो बस लिख डाला एक लंबा चौड़ा ख़त , यूँ तो उस ख़त को पोस्ट करने की कोई ऐसी कोई प्लानिंग नहीं की थी ।पर फिर सोचा अब लिख दिए हैं ,तो कर देते हैं ।
भाई साहब कहाँ बेझना है .....जानी पहचानी आवाज़ ....हमारे दिमाग के आवाज़घर  में मौज़ूद उसका चेहरा तलाशती है। दुबला पतला शरीर लिए हमे स्पीड पोस्ट की स्लिप थमा जाता है । स्कूल का ही कोई याडी है, सायद हमसे एक दर्जे आगे था ,पढ़ाई और उसमे एक बालिश का फासला हमेसा रहता था । एक नंबर मस्तीखोर ,या यूँ कहूँ की अव्वल दर्ज़े का ऐडा। यूँ तो मुझे हमेसा लगता था, की स्कूल में वो पहला होगा जिसने सिगरट का कश लिया होगा ,और हवा में छल्ला बना खुद की पीठ थपथपाई होगी। समय के फासले कुछ चेहरों पर जल्दी असर डालते हैं । वो काम को बड़ी शिद्दत से कर रहा है । एक बार मेरी ओर देखा भी नहीं । पर ख़ुशी है उसके और काम के बीच में एक अदृश्य पर मज़बूत रिस्ता पनप रहा है । मेरी आँखे केवल उसके सिगरट के डब्बे को तलाश रही हैं । पर दूर तक बस काम और काम के टीले हैं ।
(ज़िन्दगी खुद में एक बड़ा ऐब है ,ये लगा तो बाकी सब ऐब छुट ही जातें हैं ,,,पीछे...... ,बहुत पीछे)
कुछ एक आत किरदार और भी है ....पर फिर कभी लिखेंगे ......
   

Sunday, January 25, 2015

बनारस ,और साली ज़िन्दगी

बनारस का नाम  सुने हो ....अरे पूछ  रहे हैं ..सुने हो या नहीं। सुने हो तो आगे बात शुरु करें ,,, नहीं  सुने हो तो भी बात होगी ही , बस होगा यूँ की तुम्हरा नौसिखए सा चेहरा कभी अनुभवी न हो पायेगा ,अम्मा अब रहने दो बात शूरु कर ही देते हैं ....
तो बात ये थी की उसकी बनारस से कोई ख़ास दुश्मनी न थी। न ना ऐसा नहीं था  की बिलकुल ही नहीं थी। बस कुछ एक आत पंडो को और अपने बाप को देख कर, उनके सर पर अन्डो की बौछार करने का मन भर होता था । और हो भी क्यों न वो लंबी ,छोटी चोटी वाले, चूहले जैसा मुह लिए हर जगह अपनी रोटी सेकने को तैयार हो जाते थे।वैसे पंडो से यूँ दुष्मनाइ पालने के उसके पास व्यक्तिगत कारण भी थे  । लड़की को घाट बेहद पसंद थे ,इतने की उसने घाट घाट का पानी गटक रखा था ।

पिताजी लड़कियों से खार खाये बेठे थे । या यूँ कहूँ की,,अपनी लड़कियों से खार खाये बेठे थे ।दूसरे की हो तो  लार टपक ही जाती थी । लड़की ठहरी ज़िद्दी ,विद्रोही ,वो क्या है न कॉलेज में नारीवादी समूह के बड़े बड़े भाषण उसे नारी होने का अभूतपूर्व अहसास कराते थे ।वो कई बार अपनी सुन्दर काया को घर आ दर्पण में देखती थी ।अक्सर यूँ कॉलेज से आने के बाद ही होता था ।लड़की का रॉब इतना की मोहहले वाले भी घबराते थे ।लौंडे  तो उसको देख सूखे पीपल के पत्ते की तरह खुद को सिकोड़ लेते थे। पर लड़की शुरू से ऐसे कभी नहीं थी ।एकदम शुशील ,पूजा पाठ वाली हंसमुख लड़की,मतलब कुल जोड़ निकालो तो मोहल्ले में मौज़ूद  अच्छे घर की अच्छी बिटिया।फिर परिवर्तन की ऐसी हवा चली की उसके पाँव ज़मीन पर न टीके, पर माँ बाप के घुटने ज़रूर टिक गए ,पिताजी के तो टूट भी गए  समझाते बुझाते ।अब पिताजी आम की छड के सहारे जीवन सरका रहे है। या यूँ कह लो की मौत को टरका रहे हैं।अरे मूल प्रशन से तो हम भटक ही गए ,हाँ तो हम कह रहे थे की ।लड़की इतनी गतिमान कैसे हो गयी।
असल बात सिर्फ इतनी भर थी  की एक रोज़ बचपन की कोई घिस्सी पिटी या यूँ कहूँ की एकदम रगड़ी हुई बात उसे पता चली।अब बात कितनी भी रगड़ी हो ,अगर पहली बार कानो पर टकराई है, तो तगड़ी ही होती है। और ये उस रोज़ हुआ, जिस दिन वो अपनी सहेली के हक़ के खातिर उसकी माँ से भीड़ भिड़ा गयी ।और फिर क्या था माँ तैश में  बड़बड़ा गयी .,,अच्छा होता तेरी माँ तुझे उस रोज गंगा में डूब जाने देती ।बात पर बात निकली तो  ऑन्टी के मुख से बातों की पूरी त्रिवेणी  बहार आ गयी ।वो हुआ यूँ था की लड़की जब पैदा हुई तो बेहद खूबसूरत थी ,तब तक ,जब तक की एक पण्डे ने ना बोला ,की लड़की मूल नक्षत्र में हुई हानिकारक् है ।बस फिर क्या था कुछ देर माँ ,पिताजी डर के काँपे और फिर सीधे घाट की ओर कदमताल कर दी।नाव वाले को तय किराए से 1000 रूपए ज्यादा दिए । बाकी वो खुद ही समझ गया। पंडत महासय भी तड़के सुबह 4 बजे नाव में सवार  ,मंत्रो उच्चारण कर अपने बुट्टकों को उछाल  अपनी मोटी दक्षिणा की प्रतीक्षा करने लगे। उपाय अनुसार ,बीच नदी में नाव थोडा ठहरी, और माँ ने बिटिया को गंगा के हवाले कर दिया ।अब जैसा की हम जानते ही हैं ।लड़की पहले से ही विद्रोही थी,तो मौत को भी दागा दे गयी ।साथ में पानी में गोता खा,  दो लड्डू ले आई वो अलग ......हलाकि लड्डू में दुनिया भर की फफूंद लगी थी .......पर था तो भगवान् का आर्शीवाद ही, तो प्रसाद समझ सबने थोडा थोडा चाट लिया ....और अगले रोज़  खाट पकड़ ली ....माँ ने इतनी उलटी की ,की लोग उलटी उलटी बातें करने लगे....हलाकि उसके न डूबने के  पीछे इतना भर कारण था की बच्चे माँ के पेट में ही तैरने की कला से पारंगत होते हैं ।पर यहाँ भी पंडित जी ने अपने को सीद्ध करने हेतु ,उसको चम्तकार की संज्ञा दी और लड़की को तुरंत ऊपर खींच  लिया।

बस वो दिन था और आज का दिन है ।,लड़की में चमत्कारिक परिवर्तन आने का सिलसिला अनवरत जारी है । जिस चीज़ को लोग मना करे ,समाज़ गलियाय, वो वर्जनाये तोड़ बस उन गलियों में सरपट दौड़ना चाहति है ...और हाँ रपटना भी चाहती है। चोट का तो कतई डर नहीं ।बस एक ही लब्ज़ है जुबान पर हट साली ज़िन्दगी।


[कहानी 1990 के दसक की है ,सत्य है वो अलग है ]







Wednesday, January 21, 2015

हमने उसके हाथ से मोहब्त के दो घुट क्या गड़प लिए 
पुस्तैनी दिल से उसने हमारे सारे नक्काशी दार सपने हड़प लिए।