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Sunday, January 25, 2015

बनारस ,और साली ज़िन्दगी

बनारस का नाम  सुने हो ....अरे पूछ  रहे हैं ..सुने हो या नहीं। सुने हो तो आगे बात शुरु करें ,,, नहीं  सुने हो तो भी बात होगी ही , बस होगा यूँ की तुम्हरा नौसिखए सा चेहरा कभी अनुभवी न हो पायेगा ,अम्मा अब रहने दो बात शूरु कर ही देते हैं ....
तो बात ये थी की उसकी बनारस से कोई ख़ास दुश्मनी न थी। न ना ऐसा नहीं था  की बिलकुल ही नहीं थी। बस कुछ एक आत पंडो को और अपने बाप को देख कर, उनके सर पर अन्डो की बौछार करने का मन भर होता था । और हो भी क्यों न वो लंबी ,छोटी चोटी वाले, चूहले जैसा मुह लिए हर जगह अपनी रोटी सेकने को तैयार हो जाते थे।वैसे पंडो से यूँ दुष्मनाइ पालने के उसके पास व्यक्तिगत कारण भी थे  । लड़की को घाट बेहद पसंद थे ,इतने की उसने घाट घाट का पानी गटक रखा था ।

पिताजी लड़कियों से खार खाये बेठे थे । या यूँ कहूँ की,,अपनी लड़कियों से खार खाये बेठे थे ।दूसरे की हो तो  लार टपक ही जाती थी । लड़की ठहरी ज़िद्दी ,विद्रोही ,वो क्या है न कॉलेज में नारीवादी समूह के बड़े बड़े भाषण उसे नारी होने का अभूतपूर्व अहसास कराते थे ।वो कई बार अपनी सुन्दर काया को घर आ दर्पण में देखती थी ।अक्सर यूँ कॉलेज से आने के बाद ही होता था ।लड़की का रॉब इतना की मोहहले वाले भी घबराते थे ।लौंडे  तो उसको देख सूखे पीपल के पत्ते की तरह खुद को सिकोड़ लेते थे। पर लड़की शुरू से ऐसे कभी नहीं थी ।एकदम शुशील ,पूजा पाठ वाली हंसमुख लड़की,मतलब कुल जोड़ निकालो तो मोहल्ले में मौज़ूद  अच्छे घर की अच्छी बिटिया।फिर परिवर्तन की ऐसी हवा चली की उसके पाँव ज़मीन पर न टीके, पर माँ बाप के घुटने ज़रूर टिक गए ,पिताजी के तो टूट भी गए  समझाते बुझाते ।अब पिताजी आम की छड के सहारे जीवन सरका रहे है। या यूँ कह लो की मौत को टरका रहे हैं।अरे मूल प्रशन से तो हम भटक ही गए ,हाँ तो हम कह रहे थे की ।लड़की इतनी गतिमान कैसे हो गयी।
असल बात सिर्फ इतनी भर थी  की एक रोज़ बचपन की कोई घिस्सी पिटी या यूँ कहूँ की एकदम रगड़ी हुई बात उसे पता चली।अब बात कितनी भी रगड़ी हो ,अगर पहली बार कानो पर टकराई है, तो तगड़ी ही होती है। और ये उस रोज़ हुआ, जिस दिन वो अपनी सहेली के हक़ के खातिर उसकी माँ से भीड़ भिड़ा गयी ।और फिर क्या था माँ तैश में  बड़बड़ा गयी .,,अच्छा होता तेरी माँ तुझे उस रोज गंगा में डूब जाने देती ।बात पर बात निकली तो  ऑन्टी के मुख से बातों की पूरी त्रिवेणी  बहार आ गयी ।वो हुआ यूँ था की लड़की जब पैदा हुई तो बेहद खूबसूरत थी ,तब तक ,जब तक की एक पण्डे ने ना बोला ,की लड़की मूल नक्षत्र में हुई हानिकारक् है ।बस फिर क्या था कुछ देर माँ ,पिताजी डर के काँपे और फिर सीधे घाट की ओर कदमताल कर दी।नाव वाले को तय किराए से 1000 रूपए ज्यादा दिए । बाकी वो खुद ही समझ गया। पंडत महासय भी तड़के सुबह 4 बजे नाव में सवार  ,मंत्रो उच्चारण कर अपने बुट्टकों को उछाल  अपनी मोटी दक्षिणा की प्रतीक्षा करने लगे। उपाय अनुसार ,बीच नदी में नाव थोडा ठहरी, और माँ ने बिटिया को गंगा के हवाले कर दिया ।अब जैसा की हम जानते ही हैं ।लड़की पहले से ही विद्रोही थी,तो मौत को भी दागा दे गयी ।साथ में पानी में गोता खा,  दो लड्डू ले आई वो अलग ......हलाकि लड्डू में दुनिया भर की फफूंद लगी थी .......पर था तो भगवान् का आर्शीवाद ही, तो प्रसाद समझ सबने थोडा थोडा चाट लिया ....और अगले रोज़  खाट पकड़ ली ....माँ ने इतनी उलटी की ,की लोग उलटी उलटी बातें करने लगे....हलाकि उसके न डूबने के  पीछे इतना भर कारण था की बच्चे माँ के पेट में ही तैरने की कला से पारंगत होते हैं ।पर यहाँ भी पंडित जी ने अपने को सीद्ध करने हेतु ,उसको चम्तकार की संज्ञा दी और लड़की को तुरंत ऊपर खींच  लिया।

बस वो दिन था और आज का दिन है ।,लड़की में चमत्कारिक परिवर्तन आने का सिलसिला अनवरत जारी है । जिस चीज़ को लोग मना करे ,समाज़ गलियाय, वो वर्जनाये तोड़ बस उन गलियों में सरपट दौड़ना चाहति है ...और हाँ रपटना भी चाहती है। चोट का तो कतई डर नहीं ।बस एक ही लब्ज़ है जुबान पर हट साली ज़िन्दगी।


[कहानी 1990 के दसक की है ,सत्य है वो अलग है ]







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