ऑफिस नामा भाग 3
बचपन में पिताजी से ऑफिस की सेकड़ो दन्त कथाएं सुनी थी । इतनी ,की सुनते सुनते हम होंठ तो होंठ दांतों को भी चबा जाया करते थे। वही ख़याल मन में रह रह कर खाली टिन की तरह बज़ रहे थे। यूँ तो मेनेजर के प्रवेश द्वार और हम में मात्र चंद उछलते कदमो की दूरी भर थी। मगर नजाने क्यों फासला मीलों का लग रहा था । खैर ये मीलों सा फासला हमारी सांस को एक बार अंदर बहार खींचते ही समाप्त् हो गया ।और हम किसी अनजान पशु की तरह नौसिखिये से ,अपने मालिक के सामने प्रस्तुत हुए । मेनेजर साहब ने हमको देख अपनी आँखे इतनी जोर से सिकोड़ी ,लगा की वो अपनी निश्चित जगह छोड़ ,भीतर को गिर पड़ेंगी। ठीक उसके उलट हमारी आँखें चौड़ाई के सारे मापदंडों को पार कर गयी । तो आप हैं नए ....ये सुन मुझे मार्किट में उतरे किसी नए साबुन जैसे अहसास हुआ .....उनके इस वाक्य ने कुछ देर सरीर में अलग अलग दीशाओं में बहते गर्म पसीने को सावधान की मुद्रा में ला दिया । हमने भी यस बोल अपनी मौजूदगी का अहसाह कराया । मेनेजर साहब ने यस का सारा रस हमारी बात को अनसुना कर निकाल दिया ।ये तो अफसर वाली बात हो गयी , जैसा की पिताजी अपनी दन्त कथाओं में विवरण दिया करते थे ।हमारे मन में विचारों के काले बादल आपस में भिड़ने लगे। वहीँ पास ही उस केबिन में मेनेजर के दायें ओर एक और अफसर नुमा कुर्सी थी । पर साइज़ में थोड़ी छोटी थी ।उसने हमारा ध्यान समेट के अपनी और खींचा ।अब बात दिमाग के कोष्ठक में पालती मार के बेठी। की, चेयर मैटर्स,जितनी बड़ी कुर्सी उतना रोबीला पन। प्लीज टेक योर सीट ...मेनेजर इस बार फ़ाइल से कट्टी कर मेरी ओर मुखातिब हुए। उन्होंने प्रश्न दागा ....यू आर फ्रॉम ......हमने झटक के टंग को रोल कर अमेरिकन एक्सेंट में देहाती अंग्रेजी परोस डाली .....आई ऍम फ्रॉम देहरादून। ....संवाद का अभी पहला चरण ही था ..मगर हमारी तयारी आखरी चरण तक पक्की थी .....अगले प्रश्न के जवाब को और बेहतर देने को हमने अपने सूखते गले के कुएं से पाव भर थूक खींच लिया ।......इससे पहले की हम तयारी में और धार ला पाते....।दरवाज़े पर दस्तक ने हम दोनों के ध्यान को तोड़ दिया ........(जारी है)
बचपन में पिताजी से ऑफिस की सेकड़ो दन्त कथाएं सुनी थी । इतनी ,की सुनते सुनते हम होंठ तो होंठ दांतों को भी चबा जाया करते थे। वही ख़याल मन में रह रह कर खाली टिन की तरह बज़ रहे थे। यूँ तो मेनेजर के प्रवेश द्वार और हम में मात्र चंद उछलते कदमो की दूरी भर थी। मगर नजाने क्यों फासला मीलों का लग रहा था । खैर ये मीलों सा फासला हमारी सांस को एक बार अंदर बहार खींचते ही समाप्त् हो गया ।और हम किसी अनजान पशु की तरह नौसिखिये से ,अपने मालिक के सामने प्रस्तुत हुए । मेनेजर साहब ने हमको देख अपनी आँखे इतनी जोर से सिकोड़ी ,लगा की वो अपनी निश्चित जगह छोड़ ,भीतर को गिर पड़ेंगी। ठीक उसके उलट हमारी आँखें चौड़ाई के सारे मापदंडों को पार कर गयी । तो आप हैं नए ....ये सुन मुझे मार्किट में उतरे किसी नए साबुन जैसे अहसास हुआ .....उनके इस वाक्य ने कुछ देर सरीर में अलग अलग दीशाओं में बहते गर्म पसीने को सावधान की मुद्रा में ला दिया । हमने भी यस बोल अपनी मौजूदगी का अहसाह कराया । मेनेजर साहब ने यस का सारा रस हमारी बात को अनसुना कर निकाल दिया ।ये तो अफसर वाली बात हो गयी , जैसा की पिताजी अपनी दन्त कथाओं में विवरण दिया करते थे ।हमारे मन में विचारों के काले बादल आपस में भिड़ने लगे। वहीँ पास ही उस केबिन में मेनेजर के दायें ओर एक और अफसर नुमा कुर्सी थी । पर साइज़ में थोड़ी छोटी थी ।उसने हमारा ध्यान समेट के अपनी और खींचा ।अब बात दिमाग के कोष्ठक में पालती मार के बेठी। की, चेयर मैटर्स,जितनी बड़ी कुर्सी उतना रोबीला पन। प्लीज टेक योर सीट ...मेनेजर इस बार फ़ाइल से कट्टी कर मेरी ओर मुखातिब हुए। उन्होंने प्रश्न दागा ....यू आर फ्रॉम ......हमने झटक के टंग को रोल कर अमेरिकन एक्सेंट में देहाती अंग्रेजी परोस डाली .....आई ऍम फ्रॉम देहरादून। ....संवाद का अभी पहला चरण ही था ..मगर हमारी तयारी आखरी चरण तक पक्की थी .....अगले प्रश्न के जवाब को और बेहतर देने को हमने अपने सूखते गले के कुएं से पाव भर थूक खींच लिया ।......इससे पहले की हम तयारी में और धार ला पाते....।दरवाज़े पर दस्तक ने हम दोनों के ध्यान को तोड़ दिया ........(जारी है)
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