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Friday, March 11, 2016

पापा वाली कहानी.....और हसन साहब

हसन साहब से मेरी मुलाक़ात पिताजी की सुनाई ढेर सारी कहानियों में से किसी एक कहानी में हुई थी ।यूँ तो बड़ी सीधी सपाट कहानी पापा रचा करते थे , पर नजाने क्यों हसन साहब इन सीधी कहनाइयों का सबसे जटिल किरदार थे। ।    इसमें  ढेर सारा अवसाद था जो अक्सर जोर से हंस दिया करता था । पापा की सुनाई हर कहानी में यूँ तो कभी मंटो तो कभी मुराकामी के किरदार बाखूबी दाखिल होते थे ।जो   मुझे काफी समय बाद समझ   आया । पापा एक अच्छे  कहानीकार है ये में जानता था ,हालांकि इस बात का बोध मेने   मात्र उनको  इसलिए नहीं होने दिया ।की  कहीं वो आत्ममुघ्ता में घमंडी किरदारों को रचना न सुरु कर दे ,जो मेरे बालमन को हर्गिश बर्दाश नहीं होता । पापा ने कहानियों  मे नजाने कितनी बार हरा वाला चाँद     इतना बाखूबी रचा की मेने उसे काफी समय तक सच माना ।हसन साहब और हरा वाला चाँद  मेरे लिए हमेसा जीवंत रहे  । हसन साहब उस समय का उपजा    किरदार थे  जब   पिताजी नौकरी की तलाश में गांव छोड़  दिल्ली आ गए । पिताजी की उम्र 24 साल रही होगी जब अपने से तकरीबन दुगनी उम्र के हसन जी ने उन्हें दोस्त की उपाधि दी ,और अपने अंदर हँसते अवसाद का साझीदार बना लिया । हसन जी आज़ादी से पहले के किरदार थे ,उनका मूल निवास पाकिस्तान में लाहौर के आस पास का था । घर परिवार से समृद्ध थे ,दो बड़े भाइयों में सबसे छोटे , और स्वभाव  से    बेफिक्र अंदाज़ के धनी  । मात्र सत्रह की उम्र में  प्यार  कर   बेठे ,एक चित्रकारी से और दूसरा किसी हिन्दू लड़की से । प्यार परवान चढ़ पाता  उससे पहले ही  विभाजन की त्राशदी आ धमकी । हसन जी को अब फैसला लेना था ,जैसा की उस दौर में मौज़ूद हर शख्स को लेना था । पर हसन जी के  अंतर द्वन्द  काफी गहरे और   गाड़े थे ।परिवार उनके दोनों ही किस्म के प्यार के सख्त खिलाफ था  । एक चित्रकारी और दूसरा उन हालातों  में किसी गैर धर्म की लड़की से प्यार करना । परिवार ने लाहौर में रहने का फैसला किया और हसन साहब ने अपने आज़ाद ख्यालों के साथ चलने का । इन्ही ख्यालों का साथ समेटे वो एक दिन हिंदुस्तान आ गए । मात्र ये उम्मीद लिए की उनका प्यार उन्हें इस सरज़मी पर मिल जाएगा । हसन साहब ने दिल्ली को अपना निवास स्थल बनाया ,क्योंकि उन्हें अंदेशा था ,की रोज़गार की तलाश में हो न हो  जिनकी तलाश में वो आये थे ,यहाँ उनसे उनकी मुलाक़ात हो जाए । पापा  की सुनाई पूरी कहानी में  ढेर सारे अन्तर्विरोधों से जुंझते हसन साहब के चेहरे पर बेचैनी का भाव कभी  नहीं उभरता ....पापा अक्सर चालाकी से अपनी कहानियों में हमे सामजिक ताने बाने के जटिल भाग से दूर रखते थे  .....इसलिए उनकी कहानियां सीधी सपाट मगर रोचक होती थी ..।।।.(जारी है)
घर

उनको  नजाने क्यों लगा की सब कुछ बदल जाएगा । मेरी मौजूदगी उनको  हर बार अहसास कराती की उम्र भर समेटी उनकी   ढेरों कहानियों का अब में अहम् किरदार बन  जाऊँगा।वो  किरदार जो उसे कभी    छलेगा नहीं  ,खीज पैदा नहीं करेगा ।बचपन मे गुल्लक में डाली उसकी किसी छुटपन के सपने की जर्द पर्ची की याद साझा करेगा  । । जो ताउम्र उसने खुद से , और अपने परिवार से छुपाई। अकेलेपन में खुद को टटोलना सायद और मुश्किल होता होगा ।ऐसा मुझे पिछले दिनों अहसास हुआ । घर ढूंढने की प्रक्रिया में जब नजाने कितनी शामों को ठोकर मारी और कितनी रातों को अगली सुबह की लिए सरका दिया । जब किवाड़ और बालकनी पर सर पटकता चाँद रोज़ अलसाया सा फिर आसमान पर टिक जाता ।।तब भी वो चेहरे ,जिनकी भाव शून्यता मे ऐसा कुछ नहीं था ,मुझे रह रह कर जगाते रहे । मुझे हमेसा लगता था की एक घर ,घर तब तक है जब तक उसमे कहानियां उपजती रहे   । जब कहानियां खत्म होने लगती है ,तो स्वतः ही किरदार भी मरने लगते हैं । घर ढूंढने के दौरान ऐसे ही एक घर से मेरी सुबह जा टकराई ।  मुझे कतई अंदाजा नहीं था उस घर मे ऐसा कुछ नहीं होगा ,जिसका सब कुछ मेरे अंदर रह जाएगा ।ढेर सारा खालीपन ,नीरसता  ,और मकान मालिक की  अनचाही विवशता जो उनकी उम्र और  जीवटता हमारे सामने छुपा तो गयी । पर अंदर एक बहुत बड़ा वैक्यूम था ,जो उनकी बीवी के कुछ रोज़ पूर्व हुई अचानक मृतयु से आ बना था । घर दुमंजिला था ,पर मालुम होता जैसे जीवन वहां से खुद को समेट रहा है । अकेले किसी आराम चेयर पर बैठ अपनी तह की गयी पुरानी यादों को वो चाय की चुस्कियों के सहारे हमारे सामने खोलते गए । बेटा सरकारी महकमे में बड़ा अधिकारी है ,दूसरे सेहर में रहता है । पूछा आप क्यों नहीं रहते उनके साथ ,तो बात टाल गए । अपने घर का कोना कोना उन्होंने बड़े उत्साह के साथ दिखाया । हालांकि घर पर ज्यादातर मकड़ी के    जाले थे । पर यूँ लगा जैसे अपनी जवानी के दिनों की धुल को अपने उत्साह से झाड़ देना चाहते थे।
(जारी है)
ओफ्फिसनामा भाग 5
तो पिछली कड़ी मे घटे ढेर सारे घटनाक्रम का सिलसिला अभी जारी है ।ट्रापोलिन पर उछलता हमारा  दिमाग और नए अफसर के आगे साफ़ उजली प्राणवायु को तरसती हमारी ढेर सारी उम्मीदें, अभी भी किसी मासूम बच्चे की तरह मुह पसारे खडी हैं। और अपनी ही लार से उनको पोषित कर रही हैं ।तो जैसा की बॉस ने हमे पहले दिन ज्ञान  का   रसपान करने का जो  बीड़ा उठाया था ,उसमे हमने कोई विघ्न नहीं डाला। ज्यूँ ही बॉस ने चलने का हुक्म  बजाया,    हमने ज्यादा  न नुकर न करते हुए , कलाइयों के बीच डायरी फंसा  दी। ठीक उसके उलट बॉस ने हमारी डायरी के एक चौथाई   पतला नोट पेड उठा लिया । हवा की गति से तेज़ वो जल्द दरवाज़े के बहार हो गए ।हम अब भी ख्यालों में अपनी अफसरी आभा ढूंड  रहे हैं .। कुछ देर पशचात् एक तीखी आवाज़ जिसमे हमारा नाम भी सम्मलित था हम से आकर जा टकराई । बॉस ने हमे अपने साथ होने का आहवाहन दिया  ।  हम भी उठे और तुरंत बॉस की गाडी की अगली सीट पर जा धंसे। चपरासी इन चीज़ों से बेपरवाह होने का स्वांग भर कर रहा था । पर दांतों के बीच माथा रगड़ती उसकी  उँगलियाँ उसके अंदर की बेचैनी   और हमारे अंदर विजय भाव  की नयी इबारत लिख चुके थे।    । जल्द गाडी ने गति पकड़ी और ऑफिस हमसे  और हम ऑफिस से दूर हो गए । दिमाग अब भी ट्रैम्पोलिन पर ही है ...थका है पर रुका नहीं। ... बॉस भावविहीन हो गाडी में जड़ हो गए हैं।  गाडी ने अपनी उम्र के हिसाब से सड़क को नापने की पुरज़ोर कोशिश की और अंततः सफल भी हुई ।हम एक और सरकारी दफ्तर में  हाज़री लगाने को तैयार थे। बॉस ने  टाई की झूलती गाँठ को एक इंच और ऊपर सरका लिया । मानो ये गले में लटकी   उनकी आखरी उम्मीद  थी जो उनकी साख बचा सकती  थी । खैर हम अब भी इन सब से बेखबर से ही थे। जुबान अब भी चाय और बिस्कुट की डकारों का आनंद उठा रही थी पर बहुत देर तक नहीं ,ज्यूँ ही हमने अंदर प्रवेश किया हमारी आँखें लट्टू की तरह घूम गयी ....जारी है