पापा वाली कहानी.....और हसन साहब
हसन साहब से मेरी मुलाक़ात पिताजी की सुनाई ढेर सारी कहानियों में से किसी एक कहानी में हुई थी ।यूँ तो बड़ी सीधी सपाट कहानी पापा रचा करते थे , पर नजाने क्यों हसन साहब इन सीधी कहनाइयों का सबसे जटिल किरदार थे। । इसमें ढेर सारा अवसाद था जो अक्सर जोर से हंस दिया करता था । पापा की सुनाई हर कहानी में यूँ तो कभी मंटो तो कभी मुराकामी के किरदार बाखूबी दाखिल होते थे ।जो मुझे काफी समय बाद समझ आया । पापा एक अच्छे कहानीकार है ये में जानता था ,हालांकि इस बात का बोध मेने मात्र उनको इसलिए नहीं होने दिया ।की कहीं वो आत्ममुघ्ता में घमंडी किरदारों को रचना न सुरु कर दे ,जो मेरे बालमन को हर्गिश बर्दाश नहीं होता । पापा ने कहानियों मे नजाने कितनी बार हरा वाला चाँद इतना बाखूबी रचा की मेने उसे काफी समय तक सच माना ।हसन साहब और हरा वाला चाँद मेरे लिए हमेसा जीवंत रहे । हसन साहब उस समय का उपजा किरदार थे जब पिताजी नौकरी की तलाश में गांव छोड़ दिल्ली आ गए । पिताजी की उम्र 24 साल रही होगी जब अपने से तकरीबन दुगनी उम्र के हसन जी ने उन्हें दोस्त की उपाधि दी ,और अपने अंदर हँसते अवसाद का साझीदार बना लिया । हसन जी आज़ादी से पहले के किरदार थे ,उनका मूल निवास पाकिस्तान में लाहौर के आस पास का था । घर परिवार से समृद्ध थे ,दो बड़े भाइयों में सबसे छोटे , और स्वभाव से बेफिक्र अंदाज़ के धनी । मात्र सत्रह की उम्र में प्यार कर बेठे ,एक चित्रकारी से और दूसरा किसी हिन्दू लड़की से । प्यार परवान चढ़ पाता उससे पहले ही विभाजन की त्राशदी आ धमकी । हसन जी को अब फैसला लेना था ,जैसा की उस दौर में मौज़ूद हर शख्स को लेना था । पर हसन जी के अंतर द्वन्द काफी गहरे और गाड़े थे ।परिवार उनके दोनों ही किस्म के प्यार के सख्त खिलाफ था । एक चित्रकारी और दूसरा उन हालातों में किसी गैर धर्म की लड़की से प्यार करना । परिवार ने लाहौर में रहने का फैसला किया और हसन साहब ने अपने आज़ाद ख्यालों के साथ चलने का । इन्ही ख्यालों का साथ समेटे वो एक दिन हिंदुस्तान आ गए । मात्र ये उम्मीद लिए की उनका प्यार उन्हें इस सरज़मी पर मिल जाएगा । हसन साहब ने दिल्ली को अपना निवास स्थल बनाया ,क्योंकि उन्हें अंदेशा था ,की रोज़गार की तलाश में हो न हो जिनकी तलाश में वो आये थे ,यहाँ उनसे उनकी मुलाक़ात हो जाए । पापा की सुनाई पूरी कहानी में ढेर सारे अन्तर्विरोधों से जुंझते हसन साहब के चेहरे पर बेचैनी का भाव कभी नहीं उभरता ....पापा अक्सर चालाकी से अपनी कहानियों में हमे सामजिक ताने बाने के जटिल भाग से दूर रखते थे .....इसलिए उनकी कहानियां सीधी सपाट मगर रोचक होती थी ..।।।.(जारी है)
हसन साहब से मेरी मुलाक़ात पिताजी की सुनाई ढेर सारी कहानियों में से किसी एक कहानी में हुई थी ।यूँ तो बड़ी सीधी सपाट कहानी पापा रचा करते थे , पर नजाने क्यों हसन साहब इन सीधी कहनाइयों का सबसे जटिल किरदार थे। । इसमें ढेर सारा अवसाद था जो अक्सर जोर से हंस दिया करता था । पापा की सुनाई हर कहानी में यूँ तो कभी मंटो तो कभी मुराकामी के किरदार बाखूबी दाखिल होते थे ।जो मुझे काफी समय बाद समझ आया । पापा एक अच्छे कहानीकार है ये में जानता था ,हालांकि इस बात का बोध मेने मात्र उनको इसलिए नहीं होने दिया ।की कहीं वो आत्ममुघ्ता में घमंडी किरदारों को रचना न सुरु कर दे ,जो मेरे बालमन को हर्गिश बर्दाश नहीं होता । पापा ने कहानियों मे नजाने कितनी बार हरा वाला चाँद इतना बाखूबी रचा की मेने उसे काफी समय तक सच माना ।हसन साहब और हरा वाला चाँद मेरे लिए हमेसा जीवंत रहे । हसन साहब उस समय का उपजा किरदार थे जब पिताजी नौकरी की तलाश में गांव छोड़ दिल्ली आ गए । पिताजी की उम्र 24 साल रही होगी जब अपने से तकरीबन दुगनी उम्र के हसन जी ने उन्हें दोस्त की उपाधि दी ,और अपने अंदर हँसते अवसाद का साझीदार बना लिया । हसन जी आज़ादी से पहले के किरदार थे ,उनका मूल निवास पाकिस्तान में लाहौर के आस पास का था । घर परिवार से समृद्ध थे ,दो बड़े भाइयों में सबसे छोटे , और स्वभाव से बेफिक्र अंदाज़ के धनी । मात्र सत्रह की उम्र में प्यार कर बेठे ,एक चित्रकारी से और दूसरा किसी हिन्दू लड़की से । प्यार परवान चढ़ पाता उससे पहले ही विभाजन की त्राशदी आ धमकी । हसन जी को अब फैसला लेना था ,जैसा की उस दौर में मौज़ूद हर शख्स को लेना था । पर हसन जी के अंतर द्वन्द काफी गहरे और गाड़े थे ।परिवार उनके दोनों ही किस्म के प्यार के सख्त खिलाफ था । एक चित्रकारी और दूसरा उन हालातों में किसी गैर धर्म की लड़की से प्यार करना । परिवार ने लाहौर में रहने का फैसला किया और हसन साहब ने अपने आज़ाद ख्यालों के साथ चलने का । इन्ही ख्यालों का साथ समेटे वो एक दिन हिंदुस्तान आ गए । मात्र ये उम्मीद लिए की उनका प्यार उन्हें इस सरज़मी पर मिल जाएगा । हसन साहब ने दिल्ली को अपना निवास स्थल बनाया ,क्योंकि उन्हें अंदेशा था ,की रोज़गार की तलाश में हो न हो जिनकी तलाश में वो आये थे ,यहाँ उनसे उनकी मुलाक़ात हो जाए । पापा की सुनाई पूरी कहानी में ढेर सारे अन्तर्विरोधों से जुंझते हसन साहब के चेहरे पर बेचैनी का भाव कभी नहीं उभरता ....पापा अक्सर चालाकी से अपनी कहानियों में हमे सामजिक ताने बाने के जटिल भाग से दूर रखते थे .....इसलिए उनकी कहानियां सीधी सपाट मगर रोचक होती थी ..।।।.(जारी है)