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Tuesday, December 30, 2014

Ass in पाताल

 मुझे अस्पताल से एक अजीब सी एलर्जी थी ,या यूँ कहूँ की सायद बैर भर था ,शायद क्या बैर ही था।एक बात जो में दिमाग में गाँठ बाँध चूका था। वो ये की अस्पताल की धुरी और डॉक्टर की छुरी से दूर ही रहो तो अच्छा ,पर अब ये बकलोल बातें सोच के भी तो कुछ नहीं होना।अस्पताल के आगे छाती फुलाये और माथे पर बड़ा सा एल लगाए आखिर कर हमको अस्पताल का गुरुत्वाअकर्षण अपनी और ले ही आया था ।हम  समझे की शायद इस जीवन हम को कोई बीमारी घेर  न पाईगी। पर जब गला घिरने लगा तो हमे समझते देर न लगी की हम घिर गए। अब भीतर घुसने की प्रक्रिया तो पूरी कर चुके है हम ।पर अंदर का माहोल हमे भयाक्रांत कर रहा है ।सामने केलिन्डर पर औंधे मुह पड़ा इंजेक्शन अपने आगे के पुछले भाग का बड़ा बेतरतीब पर्दर्शन कर रहा है । वहां से ठीक बाएं और एक और पोस्टर चस्पा है ,जिसमे खून की आँख नाक वाली बोतल मुस्करा कर कह रही है सेव ब्लड  ,पर ये क्या खूधैय बोतल बूँद बूँद खून टपका रही है। इस वक़्त नजाने हमे क्यों पुराने कई ब्लड बैंक में कार्यरत मित्रों की याद आ गयी । जो एक पार्ले जी बिस्कुट के बहाने खून का पूरा थैला शरीर से खींच लेते थे । दायें और चार कुर्सियां लावारिशों की तरह मुह कताड़े पसरी है। किसी  की तशतरी ने शायद अपना डेरा वहां नहीं डाला है ।सब लोग व्यस्त हैं ।

गर्दन पर्चों और फ़ाइल पर गड़ाये सब लोग मानव शरीर का कोई न कोई अंग हाथ में लिए फिर रहे हैं,मालुम पड़ता है अस्पताल नहीं अंग तस्करी का अड्डा हो। तभी एक व्यक्ति भन भनाते हुआ अपना आडा तिरछा सर लिए  हमारी छाती पर सीधा गड गया ।अबे क्या दीखता नहीं है। उसने मेरी और दहाड़ा है ।,नज़र दौड़ाये देखता हु तो उसकी किडनी कई  भागों में विभाजित हो अस्पताल की धुल चाट रही है। तो तू क्या है बे चूतियों का सरदार में बिफर जाता हु ।बीच बचाव कर किसी दिल वाली फ़ाइल लिए प्राणी ने मामला वही सुलटा दिया और हमसे पूछा , दिल का केबिन कहा मिलेगा ?,क्या? अजी डॉक्टर साहब कहा मिलेंगे ।हम गर्दन झटक के न बोल गए। दूसरा सख्स  फिर ज़मीन में बिखरे टुकड़ों को समेट फ़ाइल में सजा रहा है ।अपनी किडनी का सिलसिलेवार ब्यौरा ,ऐसे ही कई और भी है अलग अलग अंगों की फ़ाइल लिए ।,अपने अपने डॉक्टर का केबिन को  तलाश रहे है.।

खैर जैसे तैसे हम पहुँच लिए डॉक्टर की पर्चा खिड़की के आगे ,अम्मा असली जंग तो अब शूरु होगी। पीछे खड़े किसी अल्हाबादी भाई साहब ने तीखी टिप्पड़ी की। अब पर्चा चुवां चुआं न मिलता बेटा, मेहनत करनी पड़ती है ।साथ खड़े लड़के को कोई समझा रहा था।यूँ इतनी देर में हम पहुँच लिए पर्चा  खिड़की तक ,ज्यूँ ही हाथ घुसाया, दस हाथ और घुस लिए । खिड़की से पर्चा सहित हाथ निकलने में तकरीबन पांच मिनट लग गए। ,हाथ का पाव भर मांस टिकट खिड़की में लगे सरिया और लोगो के नाखूनो की भेंट चढ़ गया सो अलग। पर्चा हाथ लगा नहीं की हम सीधे उस भीमकाय बिल्डिंग के कई मोड़ों और चौराहों को पार कर हो लिए अपने वाले डॉक्टर के केबिन में ।अपनी भड़ भड़ाती हुई छाती और गड गड़ाती हुई आवाज़ को संभालते हम दाखिल हुए।  डॉक्टर के समुख  ।वहां डॉक्टर के हाथ में झूलती सुई को देख  हमारा दिल भक से बैठ गया । अपने फुले हुए रसगुल्ले जैसे शरीर को लिए डॉक्टर साहिब हमारी और घुमे । डनलप के जैसे मखमली हाथ हमारे पुरे शरीर का मुयाना करने को एक दम तैयार । गले में झूलते अपने यंत्र को हमारी तन्त्रिका पर चिपका दिया ।और ताबत तोड़ हमारी स्वास् को बड़े ख़ास अंदाज़ में परिक्षण कर डाला। जाओ इनका बलगम टेस्ट कराओ, साथ खड़े एकदम मटमैले अस्सिटेंट को हिदायति सन्देश जारी किया । हालांकि कोट तो अस्सिटेंट मोहदय ने डॉक्टर के माफिक ही पहना था ।ताकि आने वाले मरीज़  भ्रम में उसे  डॉक्टर से कम ना समझे ।और औधा न सही, कम से कम सम्मान तो डॉक्टर के साथ साझा कर ही पाये।पर  ऐसा कुछ हो पाना संभव नहीं था।जब तक की वो मैल जड़ित ,बदबूदार कोट अस्सिटेंट मोहदय के शरीर का अभिन्न हिस्सा बना हुआ था ।खैर हमे जो बोला गया हमने वो किया। हमने बड़े बल पूर्वक अपने गम को बहार धकेले ने की पुरजोर कोशिश की और अन्तःतः लो वो बहार बलगम के रूप में प्रस्तुत हो गया ।  पर अजी बलगम न हुआ कोहिनूर हिरा हुआ। झटक के लपका और डिब्बी में बंद । बोले दो दिन बाद आना ,अजी कहाँ आना एक बार जो गए तो लौटेंगे नहीं । धकियाते मुकियाते अपना रास्ता बना सीधे अस्पताल की खुली हवा की और अग्रसर हुए ।और अस्पताल को अलविदा कहा ।हलाकि दो दिन बाद फिर जाना है रिपोर्ट लेने । सोच रहे है ये कार्य किसी के मथे मड दे ।कोई है जो ये अहसान करेगा हम पर ,हाँ हाँ जानते हैं ।मुश्किल है, पर फिर भी ,अगर कोई हो तो आपका स्वागत है ।

(किन्ही कारण वश अगर हमे ही अस्पताल का विचरण करना पड़ा तो अगली पोस्ट् भी इसी पर होगी )।जय राम जी की

Saturday, December 27, 2014

अजायबघर

अतीत मे घटी विभिषिका को छुपाने का हुनर भर ही तो है अजायबघर ।बडे कसे अंदाज़ मे तह किया गया ईतिहास, जो ठीक से सांस भी न ले सके, और अन्ततः पड़े पड़े मृत प्राय हो जाए। किन्ही कागज़ के टुकड़ों मे किन्ही बेसुध पड़ी मूर्तियों और तस्वीरों के पीछे,इन्ही कलाओं में तो पारंगत होता है "अजायबघर "।बड़ी निस्ठुर होती है अजाब घर की फिज़ाएँ ,चोटिल वर्तमान चाहे कितना गिड गिडाये ,चाहे विद्रोही हो जाए पर आजायबघर वर्तमान को भूतकाल से रूबरू होने नहीं देता ।और अंततः चमकते भविष्य की आस लगाये वर्तमान स्वयं भूतकाल हो जाता है । और आजायबघर का ये रहसय लोक अनवरत चलता रहता है।

Sunday, December 14, 2014

ये अजब सी सादगी है हर तरफ
वौ कीताबौ मे खंज़र छुपाये फिर रहा
जौ गढ गया ईस रक्त रंजीत रंगमंच कौ
वही किरदार सबसे जादा डर रहा
की हलफनामो मे ही दर्ज रहा तेरे जीवन का हिस्सा 
तू कुछ और करता, मुकम्बल आजादी का ख्वाब समेट ने के सिवा 
तो यकिनन दर्ज़ होता ,उस बिक चुके कागज़ मे तेरा एक किस्सा।
की हर रोज सोच मेरी ,हीचकी सौ सौ खाती है
कीतना डांटो डपटो ईसको,
मरने से पहले भी,एक तो आ ही जाती है।
दरारो को पाटने का केवल एक ही शिल्प है ,दौडने दीजिए दरारो के बिच उगती फफूंद को
दरारे ईतिहास का श्रृंगार होती हैं। उनका एक मात्र निरघारित उददेशय है । अपने अन्दर टुटते 
ईतीहास की खनक को दुनिया तक पहुँचाना।

की ताकती रही मुफलीसी किवाड के कोने से
शायद घुप कोई थोडी बरामदे पर आ गिरे
जो अटारी पर क़र्ज़ खाते हैं साहूकार के
उन पर तैल की कोई पुरानी सीसी आ गिरे ।
कुछ हिस्सा है तेरी आँख का गिला 
उसे गिला रहने दे ।
जो खुला है घाव तेरा उसे छिला रहने दे 
और उड़ने दे बगावत की उड़नतश्तरियों को
जो तंज़ कस्ते आएं है तेरी ढीली काया पे अब तक
छोड़ दे एक हाथ ढीला सा ,जो ढीला है उसे ढीला रहने दे।

Monday, July 28, 2014

नियति



 कमरे में एक ज़ोरदार आवाज़ से नियति चौंक  कर उठ   खड़ी हुई।  दौड़कर वो दूसरे कमरे के पास   पहुंची।    कमरे में परविषट  करते ही नियति  एकदम आवक रह गयी. अपने अंदर उठती उथल पुथल को  कुछ देर थामे वो शांत खड़ी  रही   ,उसकी चुप्पी ने   कमरे में मौजूद  शान्ति में कुछ और इज़ाफ़ा सा कर दिया था  था।  सामने फर्स  पर बैठी माँ अपने गाल पर पड़े  तमाचे के निसान को आंसुओं से अब  काफी  हद तक धो चुकी थी।  १२ साल की नियति ने बीते एक साल में ऐसा होते कई बार देखा  था. दादी का तो ये  अब रोज़ का सिलसिला हो चला था।  हलाकि माँ पर होते इस शारीरिक शोषण को लेकर ,,,उसे अपनी माँ से सहानभूति कितनी थी इस बात का आभास तो नियति को भी नहीं था ,,उसे कोई सहानुभूति ,थी भी या नहीं, इस पर भी उसे संसय था। ।  यूँ तो उसे कभी कभी लगता जैसे माँ को अब इन चीज़ों की आदत सी हो गयी है।  उसको ना ही अपनी माँ और न ही अपने पिता में कोई आदर्श दीखता। पिताजी के लिए तो उसके मन में सम्मान तक का भाव नहीं था।  उसका बस चलता तो घर में मौजूद  उनकी सारी  तस्वीरों को बहार फेंक देती।  पर वो ये बात अच्छी तरह जानती थी , की इस बिना सर पैर के गुस्से को पाल के  भी उससे कुछ हासिल नहीं होने  वाला था।  वो भी गुस्सा उस व्यक्ति के लिए जो अब इस दुनिया में नहीं रहा। पिछले वर्ष तक जब पिताजी ज़िंदा थे तो माँ को वो रोज़ गरियाता और पीटते। माँ का सरीर उनके लिए बस एक पंचिंग बैग भर था।  जब सब सो जाते तो माँ बस अपने घावों पर बिना आवाज़ किये मरहम लगाती।  कुछ घावों तक तो  यत्न कर मरहम लग जाता तो कुछ घाव उनके यत्न से भी परे होते और मरहम से भी।  पिताजी का देहांत किडनी फ़ैल होने  से हुआ।  पर नियति हमेसा हैरान रही की इतनी शारीरक प्रतारणा  झेलने के बाद भी माँ ने पापा को बचाने के लिए पूरी सिद्दत से सेवा  क्यों की । वो तो आज़ाद  हो   रही थी.   तिल तिल मरने से , पर वो फिर भी पूर्ण सेवाभाव से लगी रही।  काफी ज़द्दोज़हद  के बाद भी वो उन्हे बचा नहीं पायी।
पिताजी की मृत्यु के रोज़ भी जहाँ सब ग़मगीन थे पर नियति के चेहरे पर एक अजीब सी शान्ति थी।या फिर सुकून था की अब रोज़ रोज़ की मार  पीट से तो ये घर मुक्ति पायेगा। पर उसे इस बात का   जरा भी आभास नहीं था की पिताजी की  निर्दय भूमिका मे अब उसकी दादी आ जाएंगी।    उस रोज़ भी पिताजी की मौत का ठीकरा दादी ने माँ पर फोड़ा। बोली मनहूस है।  तीन साल पहले जब पिताजी ने दूसरी शादी की थी तो,,,,, ये दादी ही थी जो ये कई बार कह चुकी थी.   की सुशील  और खूबसूरत बहु है ,पहले वाली से तो लाख  गुना अच्छी है।  नियति की पहली माँ की मौत कैसे हुई ये तो वो कभी नहीं जान पायी पर बस अपनी पहली माँ की मौत के दिन उसे दूसरे कमरे मे जाने को बोला था। … और बाद मे दादी ने कहा की तेरी माँ जल गयी । उसे हमेसा लगता था उससे कुछ छुपाया गया।  २ साल तक तो उसने अपनी नयी माँ से  सीधे मुह बात तक नहीं की,,,,,,,,,पर उसकी माँ  हर वक़्त और हर मुमकिन  प्रयास करती उसके करीब आने का । उस रोज़ पिताजी की मौत के बाद उसने पहली बार अपनी माँ  से कुछ आत्मीयता से बात की थी,,,  वो भी स्कूल के किसी फारम में गार्ज़ियन  के हस्ताकसर  चाहिए थे।  उसने धीमी से उनका नाम पूछा था । । बड़े ही ममतत्व  से वो बोली "मनीषा" और फिर क्या था वो एक एक कर उन् से कई सवाल पूछ गयी. .  उस रात वो काफी देर तक उनसे बतियाती रही।  उसे अपनी नयी माँ अब भाने  लगी थी। खासतौर पर  ये   जानने के पश्चात की उन्होने ये शादी किन हालातों मे की।   मानसी बेहद ही गरीब परिवार से  थी ,शादी से एक रोज़  पहले तक तो उसे  इस बात का आभास तक नहीं था की अगले  पल उसका जीवन पूरी तरह से किसी की  गुलामी   की ज़ंजीरों में जकड़ा   जाने वाला   था। .... कहा  पहाड़ो की स्वछंद फ़िज़ाओं   में  विचरण    करने वाली इक  मासूम सी लड़की,  जिसके सर पर अगले  ही दिन ढेरों ज़िम्मेदारियों  का अनचाहा   बोझ डाल दिया  जाने वाला था.. उस रात मनीषा माँ से खूब लड़ी बोली वो ये शादी नहीं  करेगी।  पर    माँ की मज़बूरी और तीन बहनो के धूमिल होते भविस्य को फिर से उड़ान देने के लिए,,,,,, उसने माँ को इस रिश्ते के लिए मूक सहमति दे  दी।

" नियति"" , एक टक  मनीषा की बात  सुनती रही। …



                                                                                        ( अभी जारी है ) ( to  be  continued )











की तब तक समतल नहीं होंगी ज़मीने
जब तक उलझता रहेगा बारूद हवाओं मे 
जब तक उफनते धुल के गुबार अहसास कराएंगे 

की दो हाथ नीचे दफ़न ताबूत भी रिसते हैं 
अपने अधूरे ख्वाब की याद मे 

Wednesday, April 16, 2014

HIGHWAY

HIGHWAY

वैसे तो समय हमारे पास बहुत रहता है पर आज हम कुछ ज्यादा  ही व्यस्त रहे। वो क्या है न सारा दिन आज हाईवे पर बीता। पगला इम्तिआज़ अली हाथ्थिये पकड़ के बैठ  गया और बोला चलो कहानी गढ़ते है। फिर क्या इम्तिआज़ को तो आप जानते ही  है कथा वाचक की भूमिका को तो वो  बड़े निराले अंदाज़ मे निभाते हैं. जो एक बार सुरु हुआ तो फिर सांस रोके आप पूरी कहानी सुन ही  लोगे। ये बात तो तय शुदा है कहानी कहने का attractive अंदाज़ हे न लड़के  का। तो भैया  आज का दिन हम फिल्म के हाईवे पर  चौकड़ी भरते रहे।या यूँ कह लो की गुम रहे     यूँ भी खो जाना एक अलग अनुभव होता  है ,  बहुत सा गिल्ट ,डर और नजाने  कितने ऐसे यादें की पोटली है जो आपकी यादों की हार्डडिस्क से आसानी से उतरती ही नहीं।चाहे  कितना धक्का दो पर मुई वो घिसे पीटी यादें ठसकने का नाम न ले ।  दिमाग यादों का और अनुभावों का नया स्लॉट मांगता है पर  हर किसी को नहीं मिलता न ऐसा गोल्डन चांस। जैसा फिल्म की किरदार वीरा को मिलता है और उसके ऊपर सूट बूट वाले प्यार से इतर  वो उफ़्फ़्फ़्फ़्फ़्फ़्फ़्फ़्फ़   ..........  वाला प्यार। जिसको ये अनुभव हो जाए तो वो ज़िन्दगी के हाईवे पर हाई वेव्स का अनुभव करता ही  है।  इतनी ऊँची लहर जो एकदम मिठास वाली ज़िन्दगी को थोड़ा नमकीन बना दे  । फिल्म हाई वे बूँद बूँद खुद को खुद के पास लाने की कहानी है।

डर  और प्यार के बीच में होले  होले   रिसती  ज़िन्दगी का अनुभव आपके दिमाग मे गहरे बैठ  जाएगा ।डायरेक्टर  इम्तिआज़ अली ने अपने कसे  हुए हांथो का हुनर एक बार फिर से  दिखाया है। कहानी शुरू होती है फिल्म की किरदार वीरा से जिसने जीवन के स्याह रंग को देखा है पर सफ़ेद अंदाज़ मे,,,,, पर वो ज़िन्दगी का सफ़ेद रंग भी देखती है स्याह अंदाज़ मे। शादी के एक रोज़ पहले वीरा का अपहरण हो जाता है और फिर सुरु होता है आड़ी  तिरछी सड़को पर दौड़ता प्यार का ये खूबसूरत सफर।   पूरी फिल्म मे वीरा किड्नैप्ड होने  के बावजूद  .। डर को अपने पास सरकने नहीं देती … महावीर की भूमिका मे रणदीप अपनी छाप छोड़ जाते हैं। कहानी की शुरुवात  मे वीरा (आलिआ भट्ट ) का ये सफर थोड़ा डरावना लगता है पर अन्तःतः किडनैपर को ही वीरा की मासूमियत से प्यार हो जाता है और उससे भी ज्यादा उसकी हर हालात  मे जीवन को गले लगाने की जीवटता से। अंग्रेजी मे इस वाले प्यार को   स्टॉक होम सिंड्रोम कहते हैं। जिसमे किडनैपर को विकटिम से प्यार हो जाता है। ये कहानी   मोटे तोर पर देखे तो दो  उलझे व्यक्तित्वों की कहानी है,जो जब सुलझने  लगते हैं।  तब तक फिल्म अंत की ओरे अग्रसर हो जाती है। हाईवे  आपकी आँखों मे आंसू, डर  और हंसी तीनो एक साथ दे जायेगी। आलिआ  भट्ट सच मे तारीफ़ की हक़दार हैं उन्होने फिल्म मे अपने  किरदार को बखूबी  जिया है। सहज अभिनय ,बेहतरीन पटकथा और उतने ही शानदार निर्देशन के लिए इम्तिआज़ अली और उनकी पूरी टीम ढेर सारी तालियों की हक़ दार है। 

आज   हम पूरी रात हाईवे पर ही बिताएंगे ......वो भी गाना सुनते हुए . ( ज़िन्दगी एक सफर है सुहाना )

Wednesday, February 26, 2014

कि पधारो हमारे देश …… पर लंगोट पेहने न आना






कि भैया पीछले कुछ हफ्ते व्यस्तता का बहुत भारी आलम रहा ,वो क्या है न बड़की दीदी कि शादी हुई और वो चली गयी परदेश  … पर जाते जाते हमका दे गयी सन्देश कि " मे वापस आउंगी " एकदम कड़क लहजे में  .... और हुआ भी ऐसे ही   .... ऊ अगले ही रोज़ वापस घर चली आयी  …   बोले तो  मायेके  …। कुछ बाकी रह गयी रश्मो रिवाज़ों को पूरा करने   .... और उनके साथ मे थे चमचमाते सूट मे हमरे जीजाजी। ,,मतलब भूतपूर्व   दुल्हे राजा ,जो एक रोज़ पूर्व किसी बहुत बड़ी रियासत के राजा न सही    …पर एक शादी के दालान के भूपति नज़र   आते थे  वो आज मात्र पति की  भुमिका   में थे।  हाँ इस बात का एक अनकहा सुकून उनके चेहरे पर ज़रूर था कि उपहार स्वरुप आज उनके साथ उनकी धरमपत्नी थी।  ख़ैर जो भी हो वर वधु पहली रोज़ हमरे घर पधारे  तो उनका अपेक्षित स्वागत सत्कार हुआ। नज़ाकत के साथ दोनों घर में परविस्ट  हुए।

अजी आप सोच रहे होंगे हम इतनी भुमिका बाँध बेठे हैं वर वधु के  इर्द गिर्द तो हमारी कहानी के मुख्य पात्र ये नव विवाहित जोड़ा होगा  …पर नहीं जनाब ऐसा बिलकुल भी नहीं है ,,, इस  कहानी के मुख्य पात्र हैं "हम '… अजी हाँ ठीक सुना आपने  हम।

शादी  के अगले दिन सुबह १०  बजे   …

बहार झमा झम बारिश का पोल डांस अंगड़ाइयां भर रहा है। सबकी निगांहे घडी पर एक टक  साधी हुई   … इंतज़ार मे हैं तो बस उनके  …,,,,,, और लो नाम लिया और वो भी हाज़िर    .....दूर से एकदम छर छरी कद कांठी ,छुआरे जैसी शक्ल ,हाथ मे छतरी और काँधे पर झोला लिए विष्णु जी का वामन अवतार अवतरित हुआ  ,,,,, अजी हुआ क्या जबर्दस्ती बुला लिया गया   "राधेश्याम पंडित जी" . जैसे ही पंडित जी द्वार तक पहुंचे सभी ने एकमत होते हुए अपनी बलखाती कमरों को चरण स्पर्श कि मुद्रा मे झुका दिया। ओरतों के इस  खूबसरत समूह ने गजब कि कला का अनूठा नमूना पेश किया   … श्यामक डाबर भी उस वक़्त होते तो सर्टिफिकेट थमा जाते इस  ग्रुप को. । अजी घबड़ाने का नहीं पंडित जी कहीं नहीं गए   ....... वो लगातार बने हुए इस  कहानी में ठीक हमारे  बगल में खड़े धोती संभाल रहे हैं. ।वो भी अंदर घुसने कि फिराक में हैं। . लो धक्का लगा और वो अंदर  …। सभी के साथ पंडित जी ने अपने चिर परचित अंदाज़ में फुर्ती के साथ स्थान ग्रहण किया  … दे तपाक  से सारी  पूजा सामग्री ज़मीन  पर बिखेर दी   फिर शुरू  हुआ उनकी कथावाचक कि भूमिका का सिलसिलेवार  क्रम। सबने हौले  से अपने अपने आसान ग्रहण किये और भगवान् कि ओजस्वी तस्वीर को (  लड़ी वाली तस्वीर  थी इसलिए फ़ोटो में ओज कुछ ज्यादा था ) यथा स्थान  स्थापित कर शुरुवात मे ही भगवान् को दर्ज़न  भर केले का भोग लगा दिया।  पिताजी ने भी प्रभु को सहानभुति  स्वरुप  सो रूपए बेहिचक ठेल दिए.  हमारा तो कलेजा गले तक आ गया और हाथ सीधे अपने पतलून में पड़े  मात्र २० रूपए पर जा टकराया। हम जानते थे ये मात्र शुरुवात  भर है ,,,, पिताजी के जैब में खनकते आखरी सिक्के कि गूंज तक पंडित जी का मंत्रो उच्चारण जारी रहेगा। …....... खैर इस  दौरान एक घटना और घटी  …… ज्यूँ ज्यूँ पंडित जी का मन्त्रों का स्वर त्वरित और भावपूर्ण होता गया  मुझे नज़ाने क्यूँ अपनी   औनी पोनी सारी डिग्रीयां कूड़े का ढेर प्रतीत होने  लगी। . या यूँ कह लो बेज़ज़ती  के घूंट दना  दन  हलाहल ज़हर कि भाँती हमारे  गले में उतारे ज़ाने लगे. …   पंडित जी संस्कृत में हमारा गला घोंटने पर आमादा थे।  वहाँ मौज़ूद बेठा हर एक व्यक्ति हर मंत्रो उच्चारण पर पेहले तो आध पोन किलो थूक गले मे उतारता  फिर पंडित जी के आगे गर्दन शुतुरमुर्ग कि भाँती झुका देता  अजी इतनी इज़ज़त तो गवर्नर को भी नहीं मिलती।  बेकार इतना ज्ञान जमाल घोंटे  कि तरह पी गए हम । कुछ लोग तो ये भी कहते है तुम्हारा कद उसी का साइड इफ़ेक्ट है। पर ये सब घटा घटनाक्रम अभी मात्र अंश  भर था ,कार्यक्रम का ये अभी शुरुवाती  भाग था।  कार्यक्रम के अगले भाग के प्रायोजक स्वंयं पंडित जी थे.

घडी में सुबह ११. ३० बजे कि उपस्थिति है
और ये शुरु  हो गयी सत्य नारायण जी कि कथा।  कथा का स्थान सुनियोजित तरीके से सजाया गया था ,इसके रण नीतिकार  भी स्वयं पंडित जी थे। . पहली पंक्ति में मौज़ूद थी दीदी और जीजा जी ,,,,उनके ठीक बगल में थे बड़ी दीदी और बड़े जीजा जी  ,दूसरी पंक्ति कि कमान माँ  और उनकी कुछ कट्टर भगवान् भक्त महिलाओं ने थाम रखी थी   ,,,,,,,,, सर मे पल्ला और हांथो में अपने घर का पूरा गल्ला रखा हुआ था ,,,,,पंडित जी का चाँद जैसा मुह  महिलाओं के हाथो में रखे चंदे  को देख तारों कि तरह टिमटिमाने लगता ,,,,,,,,,,……ओर  तीसरी पंगति में मौज़ूद थे हम और हमारे  पूजनीय पिताजी जो अब तक भगवान  को उनकी छाती तक फलों और पैसों का मचान खड़ा कर चुके थे. (इससे ये कत्तई अंदाजा मत लगयाये कि पिताजी हमारी किसी अकूत सम्पदा के मालिक हैं ).

बेटा  ये कलयुग है घोर कलयुग  …,,,,,,,,  पंडितजी ओजस्वी स्वर में
जब कलयुग का वर्षफल पूरा हो जाएगा जो कि एक लाख साल है तो पृथ्वी का विनाश होगा  और सभी लोग (हिंदुओं पर जोर देते हुए )उस गाँव  कि और रवाना होंगे जहाँ वो सुरक्षित रहेंगे ( गाँव का नाम भूल गए वरना अब तक प्लाट कटवा चुके होते  अपने नाम का).
पंडित जी बाकी लोग , मेरा मतलब मुस्लिम, सिख, ईसाई  समुदाय के लोग कहाँ जायेंगे  …… हम बोले
वो कुछ देर  निरुत्तर हो गए  .... और फिर संभलते  स्वर में बोले    ……वो भी वहीँ जायेंगे  ....
पर वो लोग सायद ऐसा नहीं मानते   ।..हमने अल्फाज़ टपकाए
पंडित जी ने इस बार घोर अपमान का घूंट पिया और बात दूसरी दिशा में पलट दी  … माँ ने मुझे  आँखों  ही आँखों में चुप रहने का इशारा  किया

अगली कहानी भय के ऊपर थी  ,,,.... पर हमे भय से ज्यादा  ख़ुशी हो रही थी कि अब तक प्रभु को  लगाया भोग प्रभु ने चख  लिया होगा क्यूंकि फलों का मचान अब भगवान कि  छाती से मुह तक आ टकराया था.
जिस दिल में भय  होता है वहाँ प्रभु का वास नहीं होता  …… भयमुक्त पंडित जी गुर्राए
हम ये पूजा क्यों कर रहे हैं  …लो फिर बीच में ऊँगली कर गए हम
बेटा सारे दुखों से मुक्ति के लिए  …… अतिआत्म विश्वाशी  पंडित जी अगले सवाल से बेखबर
आपको दुखों का भय है और इसमे भगवन क्या करेगा ,,,,, ऐसा नहीं कहते बेटा  भगवन का पाप लगेगा  ,,सभी लोगों कि नज़र मेरे ऊपर आकर गड़ गयी  मतलब आपको भगवान् का डर है ? …।
 वह सर्व शक्तिमान है  हमे उससे डरना भी चाहिए और भक्ति भी करनी चहिये  …   वह बोले
तो अभी तो आपने कहा जिस ह्रदय में डर कि चिड़िया बेठ गयी वहाँ प्रभु का पक्षी कभी वास नहीं करता। . पण्डित जी के चेहरे पर पड़ी झुरियों से इस  बार डर  कि गंगा जमुना ओवरफ्लो  हो गयी  ,,,। पिताजी हम पर   गुर्राए जाओ चाय बना  कर लाओ  । हमने  चाय बनाने के लिए किचन कि ओर प्रस्थान किया  …सबने  राहत  कि सांस ली।  पर चाय बनाने कि परक्रिया के दोरान भी हम पंडितजी के स्वर कुछ हद तक सुन सकते थे।
प्लेट प्यालों कि आवाज़ के बीच जो हुमने सुना वो कुछ यूँ था। . बेटा  नास्तिक है इसका शनि  चौथे स्थान पर है , और शुक्र दसवे पर है  इसलिए कुबुद्धि हो गया है. बेटे को जल चढ़ाने को बोलना शिवलिंग पर। । तभी हम चाय लिए प्रस्तुत हुए।   पंडित जी  ने हमे तर्राई नज़रों से देखा और ठीक वैसे ही माँ कि प्रभु भक्त मीराओं ने। .पूजा अब अपने  समापन कि ओर  थी।   पंडित जी  अंतिम कथा कि और अग्र्सर  हुए। बोले सतयुग और द्वापरयुग क्या युग थे  उन युगों में लोग कथा करके थे तो बड़ा फल मिलता था। . ……
....... अब क्यूँ नहीं मिलता इस  बार सवाल हमने  नहीं दीदी ने पूछा था।  वो बड़ी तल्लीनता  से और सौम्यता से बोले क्यूंकि अब लोग दूषित  हो चले हैं।  धर्म ,कर्म  के काम से विमुख हो रहे  हैं. मीट ,मदिरा , धूम्रपान का सेवन कर रहे हैं इसलिए। ।बोलो सतयनारायण भगवन कि जय। …।  और हवा में जय हो का नारा गूंज उठा।

कुछ हो न हो पंडित जी कि आखरी बात से हम बड़ा अभिभूत हुए और फिर उस होली वाटर (चरणा अमृत ) को हमने  कई कई बार गटका और पूजा समाप्त।  पूजा निर्धारित समय स पेहले समाप्त हो गयी यानि ३. ३० बजे.पर नज़ाने  क्यूँ पंडित जी कि  आँखों में मेरे लिए अपनत्व तैर गया  ,अपने पास बुला कर बोले जरा माचिस ले आना  … हम भी तुरंत ले आये  बोले बेठ जाओ  .... वह स्वंय कुर्सी पर विराज़े और हमे हाथों  से ज़मीन  पर बेठने का इशारा कर गए। हम बेठ गए।  बेठते साथ ही बोले भगवन को नहीं मानते।  मेने कहा मानता हु ऊपर वाले को  …। पर चार हाथ और चार सर वाले को नहीं। अब तो पंडित जी बिलबिला उठे जैब में हाथ डाल बीड़ी का बंडल निकाला और बीड़ी तुरंत जला मुह में सटा दी।  हमे तो कलयुग याद आ गया उनके ज्ञान का आखरी स्तम्भ भी धराशाही हो गया  …बोले तुम  कुतर्की हो
इस  बार हमारी आवाज़ में तल्खी थी। …हर सवाल कि प्रासंगिगता होती है पंडित जी  ओर ये कहते साथ ही हम वहाँ से उठ गए। अंतिम रूप से विदाई लेने के उपरान्त सभी ने उनके चरण स्पर्श किये सिवाय हमारे। उन्होने अपना झोला उठाया जो कि अब पहले से काफी भारी था ,फलों का मचान अब समतल ज़मीन हो चला था. वीरगति को प्राप्त एक आत फलों के अंश वहाँ हुए कृत के साक्षी थे।  पैसें भी नदारद थे. .... शायद भगवान  को भेट लग चुकी थी। …

खैर माँ ने खूब खरी खोटी सुनाई  हमे बोली उम्रदराज़ थे वैसे ही चरण स्पर्श कर लेता   …लगा सायद गलती हो गयी हमसे हमे पैर छू लेने चाहिए  थे   ,,,,,, … पर अचानक नज़र सेल्फ में पड़ी दारुओं कि बोटल  पर लिखे स्लोगन पर पड़ी जो कुछ यूँ था " हैव आय मेड इट लार्ज " पर गोर करने वाली बात ये नहीं थी  बात यह थी कि अब दारुओं कि बोटल मात्र आठ रह गयी थी।  जो एक घंटे पूर्व दस थी।
हमारे मुह से प्रक्षेपात्र कि तरह तुरंत ये वाक्य निकला। …"यस  आई हैव मेड इट लार्ज ". पंडितवा। ....


जय हो ऱाधे श्याम तिवारी। ....... (तनिक आइयेगा आप भी पंडित जी के दर्शन अभिलाषी  )













Saturday, January 4, 2014

आखरी दस्तक




वो बहुत देर तक  अपने को आदम कद  सीसे के आगे खोजता रहा। … वही अनुराग जो वो आज से २० साल पहले था।    अपने प्रतिबिम्ब को लगातार निहारता  ……  बगल वाले कमरे कि आवाज़ से बेखबर अनुराग बस अपने भविषय को लेकर बेहद कुंठित था  …। जानता है वो इस  मुददे पर जितना सोचेगा उतना दुखी होगा। कमरे कि घडी रात के  नौ  बजा चुकी है  ....बहार हवा के तेज़ झोंके चल रहे हैं   आज तूफ़ान आएगा ये वो बेहद अच्छी तरह जानता है   ,,,उसने खिड़कियाँ इरादतन बंद नहीं कि हैं। .... अनुराग लगातार खुश होने कि कोशिश कर रहा है।   दरवाज़े पर किसी की दस्तक उसके ध्यान को तोड़ती है  … पर वो फिर अपने  काम मे मसरूफ  …  टेलीविज़न ऑन करता है  … बार बार कुंठित मन शांत होने  का नाम नहीं ले रहा।  बहार बैठक मे कुछ लोग प्रविष्ट हो  चुके है।  इस बात का आभास उसे बखूबी है.  किचन मे अलग तरह के खाने कि सुगंध , करछियों और नए बघोनो कि आवाज़ बदस्तूर ज़ारी है।  पर अनुराग बस मुट्ठी  भींचे पसीने पसीने हुआ जा रहा है। … बैठक का कोलाहल अब पहले  से ज्यादा  हो चला है।  मोबाइल स्क्रीन पर नंबर फ़्लैश होता है। अनुराग झट से काट देता है।  फ़ोन मधु का था। … उसे फ़ोन उठाना चहिये था। वो परेशा न हो जाता है।  मधु का नंबर मोबाइल स्क्रीन पर फिरफलैश होता है।   इस बार बिना देरी  किये उसने फ़ोन उठाया  है। … इस बार तुम्हे अपने माँ बाप से बात करनी ही होगी  … गुस्से और फ़िक्र से भरी मधु अनुराग को बहुत कुछ कह गयी    । पर अनुराग दिल और  दिमाग को बंद कर बस एक टक खिड़की कि तरफ नज़र गड़ाए बेठा है. .... तूफ़ान कि गति लगातार बडती जायेगी। । न्यूज़ के वक्ता  हुंकार भर रहे हैं। मधु का फ़ोन ओके   …ओर आल द  बेस्ट के साथ सवयं निरस्त हो गया।

अनुराग पहले से जानता था वो अलग है  ,चुप चाप अपने काम के प्रति रूचि रखने वाले  अनुराग के कभी भी कुछ ख़ास दोस्त नहीं रहे  … बस कहने को इक दोस्त थी "मधु" जिससे वो खुल कर बात किया करता था  … एकलौता होने  के कारण उसके अकेले पन को दूर करने का ज़िम्मा मधु अपनी ज़िमेदारी समझती  थी। …।    वो अनुराग कि नज़र में दोस्त से कुछ ज्यादा थी। घडी अब साढ़े नौ बजा चुकी है। बेटा तैयार हो जाओ  वो लोग काफी देर से बैठे हैं , तुम्हारे ही दफ्तर से आने का इंतज़ार कर रहे थे। … वैसे कब आये तुम  माँ  बोली ,  अभी पीछे के दरवाज़े से  ।अनुराग झूठ बोल जाता है। ठीक है जल्दी तैयार हो जाओ ,मे सबके लिए खाना  लगा रही हु

 तूफ़ान अब हद से ज्यादा तेज़ है।  उसे  लगता है अब खिड़की बंद करने का वक़्त है मगर बाहर मेहमानो का शोर एक अजीब सी शान्ति कि ओर रवाना हो चूका है। . उसकी इच्छा तो  थी कि वो ऐसे ही चला जाये थका मांदा चेहरा लिए ,भूख तो वैसे ही मर चुकी थी पर क्या करे उसे रह रह कर मधु कि बात याद आ रही थी उसे आज हिम्मत करनी होगी  ,,,उसने अपने  पसंदीता गुलाबी धारियों वाला स्वेटर पहना और डाइनिंग हॉल कि ओर बड़ गया।  हेलो बेटा एक अधेड़ उम्र कि संभ्रांत महिला ने बड़े सधे हुए अंदाज़ मे बोला। अनुराग मुस्करा के  बोला" हेलो" ।  बेटा ये मिस्टर अग्रवल है। पिताजी बोले  ।ओर ये उनकी मिसेज़ हैं।   अनुराग कि नज़र पास बैठी उनकी बेटी पर पड़ी ।  वो बेहद खूबसूरत थी  और आवाज़ तो उससे भी दिलकश। मिसेस अग्रवाल तपाक से बोल पड़ी she is my daughter रौशनी  , C. A  है। अनुराग धीमे से बोला हेलो। फिर कुछ देर  टेबल पर सन्नाटा आकर पसर गया।  छुरी  चमचों कि आवज़ साफ सुनी जा सकती थी. … अनुराग कि जहन मे मधु कि बात  रह रह अपनी उपस्तिथि दर्ज़  करा करा रही है. …। किसी किताब में लिखी कुछ पंक्तियाँ अनुराग बार बार दोहरा रहा है "रूह एक यातना शिविर है जहाँ कैद हज़ारों ख़याल अपनी आज़ादी कि इच्छा पाले बेठे हैं।  इससे पहले अनुराग अपनी बात कहता ,मिसेस अग्रवाल पहले  ही बोल पड़ी बेटा अनुराग जाओ रूम में बैठकर रौशनी के साथ बात करो।  और फिर जोर से  हंस दी  ,.... अनुराग के दिमाग मे तो जैसे बवंडर मच गया। अब तक इतनी बात तो अनुराग को साफ़ हो चली थी कि अग्रवाल दम्पती यहाँ किसी और कारण वश नहीं बल्कि उसकी शादी कि बात करने आये थे।इस से पहले  वो  कुछ और बोलते अनुराग तपाक से बोल पडा। पिताजी मे ये शादी  नहीं कर सकता। . सबके  दरमियान कुछ देर शान्ति पसर गयी।  बेटा  any  problem
पिताजी बोले। …अनुराग ने एक लम्बी गहरी सांस  ली ,फिर  अंदर उठते द्वंद को   समाप्त किया और जल्दी से बोला। ....पापा i  am different   ,.... खिड़की पर बहार बिजली ने अपनी आखरी मोज़ूदगी का अहसास कराया। …… और अनुराग ने दैहिक द्वन्द को खोल स्वयं को नर नारायण घोषित  कर दिया।    समलैंगिगता  को उजागर करना उसके लिए कतई आसान नहीं था  पर उसने वो किया जो उसके दिल न कहा। तूफ़ान अब शांत हो चूका था। घडी अब ११ बजा चुकी थी। । अग्रवाल फैमिली  बड़ी तेज़ी से गर्दन  झुकाये वहाँ से निकल गयी।  रौशनी के मन मे अभी भी  अनुराग के लिए प्यार था। पिताजी गुस्से से  कमरे में चले गए।  टेलीविज़न कि आवाज़ फुल वॉल्यूम में कर दी है  सायद अपने अंदर  आती हींन आवाज़ों को वो दबा देना   चाहते थे।    उधर टी वी  पर खबर दौड़ रही है "समलैंगिगता पुनः अपराध कि श्रेणी में ".

अनुराग के मन में बस एक नयी उर्ज़ा है जैसे सजायाफ्ता  कैदी के मन मे आज़ाद होने के ख्याल भर से होती है ।