व्यस्त सा ज़िन्दगी का कोना है ..
वो सीलन की भूताह छपी आकृतियाँ दीवार के अपने होने का आधिपतीय जताती हैं..
सुबह का आचानक से दिखा कोहरा अभी भी अपने अंदर ज़मी धुंद का प्रतिबिम्ब सा लगता है
सांस को चंद मिनटों तक ज़हन में रोक लो तो
ज़िन्दगी अपनी कीमत का अहसास करा देती है
घर पर रखी वो आड़ी तीरची थालियाँ अब फ़र्स पर बेठ सीधे मुह बात तक नहीं करती
वो पुराने प्याले अब उन गरम हथलियों को तरसते हैं
बेफिजूल के कैलेंडर दीवार पर टंग जाने का एक गैर वाजिब ख़याल पाले हैं
वो खुली अटटेचियों के जंग खाए कोने
अब चमकीले रंग से सरमाते नहीं
सबसे पहली डायेरी के छुटे कुछ पन्नो पर कलम नजाने क्यूँ गश खा कर गिर जाती है
उस पर लिखना एक अरसे से टाला गया है
चौखट पर टंगे परदे सी है ज़िन्दगी
दिमागी कमरों में चले जोड़ घटाने का इल्म तक नहीं होने देती
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