टक टक टक टक पेर है मेरे, वो सड़क अकेली लगती है .
पीछे छुटी वो मोड़ मुझे , कोई बिछड़ी सहेली लगती है .
इन पथरीले रास्तो पर पत्थर की चुभन भी ठंडी लगती है
ज़िन्दगी के इन सुनसान रास्तो में ,निकलती खून की अपनी धार भी अत्ठ्कैली लगती है
उस पीछे छुटी हर मोड़ की धुप नवेली लगती है.
उन मोड़ो पर जाना कम होता है ,
पर नाजाने क्यूँ मुझे मेरी सांस वहीँ पर दिखती है
उन मोड़ो पर पहले वसंत दिख जाता था .
ज्यादा नहीं तो कहीं किसी कोने पर एक ,आत फूल खिल जाता था .
उसके यादों के पतझड़ को किताब में संभाले रखता हु
और जब देख सुखी पतियों को आँख भर आये
तो संभाले उसके किसी फूल को देख हल्का सा हँसता हु.
No comments:
Post a Comment