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Friday, February 24, 2012

पर्दा



व्यस्त सा ज़िन्दगी का कोना है ..
वो सीलन की भूताह छपी आकृतियाँ दीवार के अपने होने का आधिपतीय जताती हैं..


सुबह का आचानक से दिखा कोहरा अभी भी अपने अंदर ज़मी धुंद का प्रतिबिम्ब सा लगता है
सांस को चंद   मिनटों तक ज़हन में रोक लो तो
ज़िन्दगी अपनी कीमत का अहसास करा देती है
घर पर रखी वो आड़ी तीरची थालियाँ अब फ़र्स पर बेठ सीधे मुह बात तक नहीं करती
वो पुराने प्याले अब उन गरम हथलियों को तरसते हैं
बेफिजूल के कैलेंडर दीवार पर टंग जाने का एक गैर वाजिब ख़याल पाले हैं
वो खुली अटटेचियों के जंग खाए कोने
अब चमकीले रंग से सरमाते नहीं
सबसे पहली डायेरी   के छुटे कुछ पन्नो पर कलम नजाने क्यूँ गश खा कर गिर जाती है
उस पर लिखना एक अरसे से टाला गया है

चौखट पर टंगे परदे सी है ज़िन्दगी
दिमागी कमरों में चले जोड़ घटाने का इल्म तक नहीं होने देती



Sunday, February 5, 2012

वारदात


हर गमे चादर ,अपनी वारिश की सिनाक्थ करती है 
वो धुन्दलको में भी ,इन्साफ की बात करती है
तोड़ देते है जब हुक्मरान होसला इंसान का 
तब टूटती एक आश, बड़ी वारदात करती है

उन अफसरी दस्तावेजो   में .चीख़ों का हिसाब नहीं होता 
वो नुमाइंदे  रोते नहीं ,उन मांस के लोथड़ो को देख कर
क्यूंकि उनकी पोथीइयों का रंग लाल नहीं होता

खाली हैं बस्तियां ,    अब सन्नाटे रहते हैं खंडरों में 
ये बड़ी अच्छी बात है की अब कोई वारदात नहीं होती 
अब डरती हैं फिजायें यहाँ की ,इंसानों से
यहाँ अब इंसानों की बात नहीं होती   


(मरे हैं जो लोग दंगो में उनकी कोई न जात थी .......बेवक्त रोते हैं अंधेरों में अपनों के लिए वो आज भी)