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Friday, March 11, 2016

ओफ्फिसनामा भाग 5
तो पिछली कड़ी मे घटे ढेर सारे घटनाक्रम का सिलसिला अभी जारी है ।ट्रापोलिन पर उछलता हमारा  दिमाग और नए अफसर के आगे साफ़ उजली प्राणवायु को तरसती हमारी ढेर सारी उम्मीदें, अभी भी किसी मासूम बच्चे की तरह मुह पसारे खडी हैं। और अपनी ही लार से उनको पोषित कर रही हैं ।तो जैसा की बॉस ने हमे पहले दिन ज्ञान  का   रसपान करने का जो  बीड़ा उठाया था ,उसमे हमने कोई विघ्न नहीं डाला। ज्यूँ ही बॉस ने चलने का हुक्म  बजाया,    हमने ज्यादा  न नुकर न करते हुए , कलाइयों के बीच डायरी फंसा  दी। ठीक उसके उलट बॉस ने हमारी डायरी के एक चौथाई   पतला नोट पेड उठा लिया । हवा की गति से तेज़ वो जल्द दरवाज़े के बहार हो गए ।हम अब भी ख्यालों में अपनी अफसरी आभा ढूंड  रहे हैं .। कुछ देर पशचात् एक तीखी आवाज़ जिसमे हमारा नाम भी सम्मलित था हम से आकर जा टकराई । बॉस ने हमे अपने साथ होने का आहवाहन दिया  ।  हम भी उठे और तुरंत बॉस की गाडी की अगली सीट पर जा धंसे। चपरासी इन चीज़ों से बेपरवाह होने का स्वांग भर कर रहा था । पर दांतों के बीच माथा रगड़ती उसकी  उँगलियाँ उसके अंदर की बेचैनी   और हमारे अंदर विजय भाव  की नयी इबारत लिख चुके थे।    । जल्द गाडी ने गति पकड़ी और ऑफिस हमसे  और हम ऑफिस से दूर हो गए । दिमाग अब भी ट्रैम्पोलिन पर ही है ...थका है पर रुका नहीं। ... बॉस भावविहीन हो गाडी में जड़ हो गए हैं।  गाडी ने अपनी उम्र के हिसाब से सड़क को नापने की पुरज़ोर कोशिश की और अंततः सफल भी हुई ।हम एक और सरकारी दफ्तर में  हाज़री लगाने को तैयार थे। बॉस ने  टाई की झूलती गाँठ को एक इंच और ऊपर सरका लिया । मानो ये गले में लटकी   उनकी आखरी उम्मीद  थी जो उनकी साख बचा सकती  थी । खैर हम अब भी इन सब से बेखबर से ही थे। जुबान अब भी चाय और बिस्कुट की डकारों का आनंद उठा रही थी पर बहुत देर तक नहीं ,ज्यूँ ही हमने अंदर प्रवेश किया हमारी आँखें लट्टू की तरह घूम गयी ....जारी है

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