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Wednesday, August 19, 2015

ऑफिस नामा 
यूँ तो ऑफिस कोई ऐसा इलाका नहीं है जहाँ आपको सुख की कोई अनुभूति हो । पर हमे थी ,पहला दिन था तो अंदर समन्दर हिलोरे मार रहा था । हमे डर भी था की कही मुह के रास्ते बहार न आ जाए । वो हुआ यूँ की एक्साइट मेंट में चाइ नास्ता ज्यादा ठूस लिए थे । खैर तयार हुए और ऑफिस की ओर रवाना ।ऑफिस की कल्पना की जाए तो वो किसी अखाड़े से कम नहीं होता । जिसमे ऑफिस में मौजूद हर कर्मचारी को अपनी अपनी ताकत का बखूबी अंदाजा है ।में तो कहूँगा की खिलखिलाती ज़िन्दगी को लंगड़ी टांग मार गिरा देना का ज़िम्मा ऑफिस ने अपने पास रखा है ।ये भले दफ्तर के दस्तावेज़ में किसी नीली गहरी स्याही से न दर्ज़ हो, पर दफ्तर में मौज़ूद सभी के दिलो दिमाग पर खूटें के माफिक घिंटा पड़ा है । नए नए ऑफिस की सुगंध में अपने पहले दिन को लोट पोट करने को हम बड़े आतुर थे।अपनी नयी बुसट की क्रीज़ को हम इतनी बार हथला चुके थे ,की हाथ के रेखाऐ हाथ छोड़ अब बुसट पर जा छपी थी । मुखमंडल से लेकर नुकीले जूते की नोक तक सब टिप टॉप ।अब बाकी था तो प्रवेश करना । हमारी कल्पनाओ के पंछी पंख लगा चुके थे । हमने अभिमान के साथ ,शर्ट झाड़ने के बहाने खुद को थपकी लगाई । कौन हो भाई ...पीछे से किसी कर्कश आवाज़ ने हमारे खूबसूरत कल्पनाओं के पंछियों को ""हुर्रह्ह्ह "की आवाज़ के साथ उड़ा दिया । चपराशी था ......मालुम पड़ता था सुबह उठ कर जो सबसे पहला कार्य वो करता होगा वो ये की कैक्टस से कंठ को बुरी तरह ज़ख़्मी कर देता होगा ।ताकि आवाज़ सनी देओल स्टाइल में निकल सामने वाले पर पैठ जमा सके ।वैसे वो कुछ हद तक सफल भी हो गया था । खैर उस राजसाही चपरासी के सामने हमने जैसे तैसे अपनी बची खुची आवाज़ बटोरी और पूछा । .........(जारी है)

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